धर्म एवं दर्शन >> वैदेही के राम वैदेही के रामचित्रा चतुर्वेदी
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रामकथा पर आधारित पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत खण्ड-काव्य ‘वैदेही के राम’ सीता-परित्याग की घटना
पर आधारित है। चूँकि रामचरित मानस में इस दुःखद प्रसंग का उल्लेख नहीं है।
अतः खण्ड-काव्य का मूल आधार या धरातल वाल्मीकीय रामायण है। वाल्मीकीय
रामायण सीता, परित्याग के प्रसंग के कारण अत्यन्त मार्मिक, आद्यांत पीड़ा
से भीगा और दुःखान्त महाकाव्य है। यह घटना बड़ी ही दुःखद है। किन्तु इसी
त्रासद प्रसंग के कारण राम का चरित्र अपने सर्वोत्कृष्ट बिन्दु पर पहुँचा
है, यही प्रसंग राम के व्यक्तित्व को परिपूर्णता देकर उन्हें मर्यादा
पुरुषोत्तम बनाता है। इसी घटना के कारण सीता-घर-घर की महारानी बनीं,
रामसीता की जोड़ी जनमानस में चिरायु हो गयी तथा रामराज्य जन-अपेक्षाओं का
सर्वोत्तम प्रतीक और सर्वोत्तम राज्य का पर्याय बन गया।...
डॉ. चित्रा चतुर्वेदी ने जीवन का एक संकल्प ही लिया है कि श्री राम और
श्रीकृष्ण की गाथा को अपनी सलोनी भाषा में अनेक विधाओं में रचती रहेंगी।
प्रस्तुत रचना ‘वैदेही के राम’ उसी की एक कड़ी है।
सीता की
करुण गाथा वाल्मीकि से लेकर अनेक संस्कृत कवियों (कालिदास, भवभूति) और
अनेक भारतीय भाषाओं के कवियों ने बड़ी मार्मिकता के साथ उकेरी है। जैसा कि
चित्राजी ने अपनी भूमिका में कहा है, राम की व्यथा वाल्मीकि ने संकेत में
तो दी, भवभूति ने अधिक विस्तार में दी पर आधुनिक कवियों ने उस पर विशेष
ध्यान नहीं दिया, बहुत कम ने सोचा कि सीता के निर्वासन से अधिक राम का ही
निर्वासन है, अपनी निजता से। सीता-निर्वासन के बाद से राम केवल राजा रह
जाते हैं। राम नहीं रह जाते। यह उन्हें निरन्तर सालता है। लोग यह भी नहीं
सोचते कि सीता के साथ अन्याय करना, सीता को युगों-युगों तक निष्पाप
प्रमाणित करना था और अपने कठघरे में खड़ा करना था। राम की यह कठोरता जितनी
सीता के प्रति है उससे कहीं अधिक अपने प्रति है...
विदायनिवास मिश्र
रामकथा का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष
डॉ. चित्रा चतुर्वेदी ने जीवन का एक संकल्प ही लिया है कि श्रीराम और
श्रीकृष्ण की गाथा को अपनी सलोनी भाषा में अनेक विधाओं में रचती रहेंगी।
प्रस्तुत रचना ‘वैदेही के राम’ उस समय की कड़ी है।
सीता की
करुण गाथा वाल्मीकि से लेकर अनेक संस्कृत कवियों (कालिदास, भवभूति) और
अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं के कवियों ने बड़ी मार्मिकता के साथ उकेरी है।
जैसा की चित्रा जी ने अपनी भूमिका में कहा है, राम की व्यथा वाल्मीकि
संकेत में तो दी, भवभूति ने अधिक विस्तार में दी पर आधुनिक कवियों ने उस
पर विशेष ध्यान नहीं दिया, बहुत कम ने सोचा कि सीता के निर्वासन से अधिक
राम का ही निर्वासन है, अपनी निजता से। सीता-निर्वासन के बाद से राम केवल
राजा रह जाते हैं। राम नहीं रह जाते। यह उन्हें निरन्तर सालता है लोग यह
भी नहीं सोचते कि सीता के साथ अन्याय करना, सीता को युगों-युगो तक निष्पाप
प्रमाणित करना था और अपने को कठघरे में खड़ा करना था। राम की यह कठोरता
जितनी सीता के प्रति है उससे कहीं अधिक अपने प्रति है। चित्रा जी ने ढोंगी
समाज की दुष्प्रवृत्ति को दोनों के दुख का कारण सिद्ध किया है और भवभूति
के इस वाक्य को विशेष अर्थ दिया है कि ‘यथा स्त्रीणाम् तथा
वाचाम्
साधुत्वे दुर्जनो जनः।’’ लोग स्त्री और वाणी की
साधुता के
बारे में अविश्वास और दोष रखते रहते हैं। राम की व्यथा ऐसी है कि अपने
परिजनों से भी साझेदारी नहीं माँगती। राम सुमंत्र से कहते हैं—
अब साहस नहीं रहा मुझसे लोकापवाद को सहने का
आघात से कठिन उबरना है, आघात बड़ा ही था गहरा
मेरी पीड़ा का मुझ तक सीमित रहना है अति आवश्यक
सुन जायेगा लोकापवाद, नहीं करे मेरी पीड़ा-प्रचार
वह पीड़ा मुझ तक रहने दे
मुझे विषपायी ही रहने दे
महाभागा न चर्चा करें मेरी
महाभाग न चर्चा करें कहीं
हे सुमंत्र है स्थिति जैसी, उसे यथावत रहने दें
हूँ स्वस्थ, राज्य की सेवा में मुझे सदा व्यस्त ही रहने दे।
आघात से कठिन उबरना है, आघात बड़ा ही था गहरा
मेरी पीड़ा का मुझ तक सीमित रहना है अति आवश्यक
सुन जायेगा लोकापवाद, नहीं करे मेरी पीड़ा-प्रचार
वह पीड़ा मुझ तक रहने दे
मुझे विषपायी ही रहने दे
महाभागा न चर्चा करें मेरी
महाभाग न चर्चा करें कहीं
हे सुमंत्र है स्थिति जैसी, उसे यथावत रहने दें
हूँ स्वस्थ, राज्य की सेवा में मुझे सदा व्यस्त ही रहने दे।
चित्रा ने वाल्मीकि के वाक्यों की व्यथा को और भी मुखरित किया है और पूरे
काव्य से प्रमाणित किया है कि राम केवल वैदेही के राम हैं, दूसरों के लिए
वे केवल राजाराम हैं।
मैं इन शब्दों के द्वारा चित्रा के इस प्रयत्न का स्वागत करता हूँ और विश्वास करता हूँ कि इससे रामकथा का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष हृदयंगम होगा।
मैं इन शब्दों के द्वारा चित्रा के इस प्रयत्न का स्वागत करता हूँ और विश्वास करता हूँ कि इससे रामकथा का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष हृदयंगम होगा।
विद्यानिवास मिश्र
धरातल
उत्तर प्रदेश के आगरा जिले की बाह तहसील में यमुना के किनारे हमारा छोटा
सा गाँव होलीपुरा है। अन्य गाँव की भाँति वहाँ भी लोक संस्कृति की अद्भुत
छटा यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरी मिलती है। लेकिन एक बात ने विशेष रूप से मन
को अभिभूत कर दिया। छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, बाल-गोपाल सब अपने-अपने
कार्यकलापों में व्यस्त रहते या खाली बैठे होते, किन्तु जैसे ही आकाश में
पक्षियों का कोई झुंड उड़ता हुआ निकलता, हर व्यक्ति तुरंत उन्हें पुकार कर
कह उठता—‘ए कुज्ज कुज्ज, मेरी सीता से राम राम कह
दीजो’। हे कुरज ! सीता से मेरी राम राम कह देना।
मन चकित हो उठता है। बड़ा आश्चर्य होता है यह सोचकर कि क्या आज भी सीता कहीं सुदूर वन में वास कर रही हैं ? क्या आज भी वे एकाकी हैं ? क्या हर व्यक्ति उन्हें आश्वस्त करना चाहता है कि वे एकाकी नहीं, उनके दुःख में हम सब सहभागी हैं ! शताब्दियाँ ही नहीं, सहस्राब्दियाँ बीत गईं किन्तु उड़ते पछियों द्वारा सीता को राम राम कहलाने की भावना जीवित कैसे रह गई ? दूर कहीं वनों में अवध की परित्यक्ता तपस्विनी महारानी कुटिया में रह रही हैं, यह पुरातन कल्पना ही कितनी विचित्र है। लाखों लोग सहस्रों वर्ष पूर्व की सीता की कुशल-क्षेम प्रेम से लेते रहते हैं, यह भावना बड़ी रोमांचकारी है। उत्तरभारत के ग्रामीण अंचल में शुक-सारिका तो विशेष रूप से राम-सीता से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जिन उड़ते हुए पक्षियों को ‘कुज्ज-कुज्ज’ कहकर सम्बोधित किया जाता है वे भी अधिकतर शुकदल यानी झुंड के झुंड तोते ही होते हैं।
घरों में पालतू तोते को भी सबसे पहले राम राम या सीताराम बोलने का पाठ सिखाया जाता है। राम राम, सीताराम या जयसियाराम जन जन में लोकप्रिय अवभिवादन का रूप बन गया। आश्चर्य होता है यह देखकर कि रामसीता लोकमानस में जीवन के हर पहलू से कैसे अभिन्न हो गए हैं ! क्या यह समाज का प्रायश्चित्त है कि वह पूर्व में अपने द्वारा राम और सीता के प्रति किए गए अपराधों को इस प्रकार धोना चाहता है ? राम और सीता के ऋणों से तो यह भूमि कभी मुक्त नहीं हो सकती। आम आदमी रामसिया की आदर्श जोड़ी को हृदय में धारण किए हुए है। नवविवाहिता युगल को रामसिया सी जोड़ी होने का आशीर्वाद दिया जाता है ! लोग जानते हैं कि सामाजिक रूढ़ियों की आँधी, तूफान और बवंडरों के बाद भी रामसीता का एक-दूसरे के प्रति प्रेम अक्षुण्ण रहा। नीड़ टूट गया, तिनके बिखर गए, जनता की इच्छा का सम्मान करते-करते रामसीता विषपायी हो गए। दोनों ने वियोग, अपमान और लांछन का गरलपान किया। वस्तुतः दोनों को ही अग्निपरीक्षा देनी पड़ी। किन्तु दोनों एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहे। जनता के प्रति भी समान रूप से अवध के महाराज और महारानी पूरी उत्कटता के साथ समर्पित रहे, यह शायद जनमानस बहुत विलम्ब से समझ पाया।
आज का आलोचक मन पूछता है कि राम ने स्वयं सिंहासन क्यों नहीं त्याग दिया बजाय सीता को त्यागने के ? वे स्वयं सिंहासन पर बैठे राज भोग क्यों करते रहे ? इस मत के पीछे कुछ अपरिपक्वता और कुछ श्रेष्ठ राजनीतिक परम्पराओं एव संवैधानिक अभिसमयों का अज्ञान भी है। राजा या शासक का पद और उससे जुड़े दायित्वों को न केवल प्राचीन भारत बल्कि आधुनिक इंग्लैंड व अन्य देशों में भी दैवीय और महान माना गया है। राजा के प्रजा के प्रति पवित्र दायित्व हैं जिनसे वह मुकर नहीं सकता। अयोग्य राजा को समाज के हित में हटाया जा सकता था किन्तु स्वेच्छा से राजा पद त्याग नहीं कर सकता था।
आधुनिक इंग्लैंड के राजनीतिक इतिहास के एक ही उदाहरण से स्थिति स्पष्ट हो सकती है। वहाँ की संवैधानिक व्यवस्था में राजा द्वारा सिंहासन-त्याग का कोई प्रावधान नहीं रहा। यही कारण है कि जब ऐडवर्ड अष्टम ने एक तलाकशुदा महिला श्रीमती सिम्पसन से विवाह करना चाहा तो इसके विरोध में इंग्लैंड की राजनीति में भारी उथल-पुथल मच गई। अंततः राजा ने राजपद त्याग का निर्णय लिया। पूर्व में न ऐसा कोई द्रष्टांत था, न परंपरा थी कि किसी वैध शासक ने अपनी व्यक्तिगत इच्छा और सुख को संवैधानिक प्रावधानों और जनभावना से ऊपर रखा हो। इस समस्या के निदान हेतु पार्लियामेंट (ब्रिटिश संसद) को एक विशेष कानून, ऐक्ट आफ अब्डिकेशन 1936 पारित करना पड़ा जिस पर स्वयं ऐडवर्ड अष्टम ने राजा और सर्वोच्च अधिकारी की क्षमता में हस्ताक्षर कर उसे कानून का रूप दिया और तब उसके हित में स्वयं ने राजपद त्याग किया। तत्पश्चात् उनके छोटे भाई और वर्तमान महारानी एलिजाबोथ द्वितीय के पिता जार्ज षष्ठ सम्राट बने।
कोई भी पद अधिकारियों के लिए नहीं, कर्त्तव्यों के लिए होता है। उसके साथ मनमाने ढंग से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से राजपद के साथ प्रजापालन, सुरक्षा व कानून और व्यवस्था के गम्भीर दायित्व जुड़े हुए हैं। यही बात इंग्लैंड की संसद (पार्लियामेंट) के सदस्य पर भी लागू होती है। वहाँ संसद के प्रथम सदन, हाउस ऑफ कॉमन्स का सदस्य जो निर्वाचक द्वारा पाँच वर्ष हेतु चुना जाकर भेजा जाता है, पाँच वर्ष की अवधि के मध्य में स्वेच्छा से सदस्यता नहीं छोड़ सकता।
यह एक ऊँचा आदर्श है कि वह निर्वाचकों की उपेक्षा कर के जन-भावना का अनादर नहीं कर सकता। निर्वाचकों ने उसे चुनकर बड़े विश्वास के साथ अपना प्रतिनिधित्व करने का दायित्व उसे सौंपा है अतः वह उनसे विश्वासघात कर अवसरवादिता और सिद्धान्तहीनता का आचरण नहीं कर सकता। किंतु यह आदर्श इतना कठोर है इसलिए यथार्थवादी और व्यवहारिक अंग्रेज जाति ने परोक्ष रूप से इसे शिथिल कर अपनी व्यवहार-कुशलता का परिचय दिया है। सिद्धान्ततः तो कोई सांसद कॉमन्स सभा की सदस्यता नहीं छोड़ सकता, किन्तु कभी यह आवश्यक हो जाए तो वह एक संवैधानिक खिड़की के माध्यम से ही वह सदस्यता त्याग सकता है। यह बड़ा रोचक तथ्य है।
कॉमन्स सभा की सदस्यता छोड़ने के आकांक्षी सांसद के सामने एक ही मार्ग है, है कि वह चिल्ट्रन्स हन्ड्रेड नामक क्षेत्र का अपने आपको स्टुवर्ड नियुक्त करवा ले और तब कॉमन्स सभा के स्पीकर को आवेदन दे कि चूँकि वह लाभ के पद पर नियुक्त है और कॉमन्स सभा का सदस्य नहीं रह सकता इसलिए उसे सदन की सदस्यता से मुक्त किया जाए। चिल्ट्रन्स हन्ड्रेड की स्टुवार्डशिप के पायदान पर पाँव रखकर ही वह फिर कहीं और जाने को स्वतंत्र है। कभी-कभी ऐसी मनोरंजक स्थिति भी आ जाती है जब चिल्ट्रन्स हन्ड्रेड की स्टुवार्डशिप पाने के लिए अभ्यार्थियों की लम्बी कतार लग जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पद की गुरुता और दायित्व बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जिनके साथ कोई खिलवाड़ नहीं कर सकता, उन्हें हल्के-फुल्के तौर पर नहीं ले सकता।
प्राचीन भारतीय राजदर्शन में राजा के पद को बहुत गम्भीर दायित्वों से परिपूर्ण माना गया है। राजपद पवित्र है। यह कर्त्तव्यों के लिए है। दायित्व निर्वाह हेतु है। अधिकारों के लिए नहीं। कोई भी नरेश मनमाने ढंग से अपने दायित्वों से पलायन नहीं कर सकता था। कर्त्तव्य ही धर्म है। इसलिए राजनीतिशास्त्र को राजधर्म भी कहा गया।
राजधर्म को पूरी परिपूर्णता से जीने वाले राम का परम आदर्श भरत के जनमानस में युगों से गहरा रच-बस चुका है। राम एक श्रेष्ठ पुत्र, समर्पित पति, एक उत्कृष्ट प्रेमी होने के साथ-साथ एक अद्वितीय शासक रहे हैं। वे ऐसे शासक रहे है जिन्होंने अपने व्यक्तिगत सुख, आकांक्षाएँ, प्रेम, अनुराग, पत्नी, सन्तान सुख, अर्थात् अपना सर्वस्व फूल की भाँति, निर्माल्य की भाँति जनता के चरणों में चढ़ा दिया और स्वयं आजीवन तपस्वी की भाँति केवल कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य निर्वाह करते रहे। श्रेष्ठ प्रशासक और वीरयोद्धा तो बहुत मिलेंगे किन्तु राम सा त्यागी और जनता के प्रति समर्पित शासक विश्व संस्कृति के इतिहास में शायद कहीं नहीं मिलेगा।
आज जहाँ लोकतंत्र में ही जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि खुले आम, डंके की चोट पर जनमत की उपेक्षा करते हैं और जनता का शोषण करते हैं। वहीं राजा राम ने राजतंत्र में निर्दोष सीता को, मात्र जन-भावना के सर्वोच्च सम्मान देने हेतु, त्याग कर एक अनूठा दृष्टांत प्रस्तुत किया है। आज तो शासक, मंत्र, सांसद, विधायक और अधिकारी अपने भ्रष्ट से भ्रष्ट भाई-भतीजे, पुत्र और संबंधियों को छल-बल और आतंक द्वारा किस तरह कानून और दण्ड से बचाकर भ्रष्टाचार को दिनदूना-रातचौगुना विस्तार दे रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। हमारा दुर्भाग्य है कि यह प्रवृत्ति भारतीय राजनीतिक संस्कृति (पोलिटिकल कल्चर) की एक प्रमुख पहचान और विशिष्ट लक्षण बन गई है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजेवाद की ज्वालाओं से दग्ध इस राजनीतिक परिवेश में राम जैसे त्यागी शासक का स्मरण करना शीतल चन्दन के अनुलेप की भाँति सुखदायक है। आज शासक, जनप्रतिनिधि राम पर फूल-पत्ते चढ़ाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। राम का अनुकरण कोई नहीं करना चाहता।
मन चकित हो उठता है। बड़ा आश्चर्य होता है यह सोचकर कि क्या आज भी सीता कहीं सुदूर वन में वास कर रही हैं ? क्या आज भी वे एकाकी हैं ? क्या हर व्यक्ति उन्हें आश्वस्त करना चाहता है कि वे एकाकी नहीं, उनके दुःख में हम सब सहभागी हैं ! शताब्दियाँ ही नहीं, सहस्राब्दियाँ बीत गईं किन्तु उड़ते पछियों द्वारा सीता को राम राम कहलाने की भावना जीवित कैसे रह गई ? दूर कहीं वनों में अवध की परित्यक्ता तपस्विनी महारानी कुटिया में रह रही हैं, यह पुरातन कल्पना ही कितनी विचित्र है। लाखों लोग सहस्रों वर्ष पूर्व की सीता की कुशल-क्षेम प्रेम से लेते रहते हैं, यह भावना बड़ी रोमांचकारी है। उत्तरभारत के ग्रामीण अंचल में शुक-सारिका तो विशेष रूप से राम-सीता से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जिन उड़ते हुए पक्षियों को ‘कुज्ज-कुज्ज’ कहकर सम्बोधित किया जाता है वे भी अधिकतर शुकदल यानी झुंड के झुंड तोते ही होते हैं।
घरों में पालतू तोते को भी सबसे पहले राम राम या सीताराम बोलने का पाठ सिखाया जाता है। राम राम, सीताराम या जयसियाराम जन जन में लोकप्रिय अवभिवादन का रूप बन गया। आश्चर्य होता है यह देखकर कि रामसीता लोकमानस में जीवन के हर पहलू से कैसे अभिन्न हो गए हैं ! क्या यह समाज का प्रायश्चित्त है कि वह पूर्व में अपने द्वारा राम और सीता के प्रति किए गए अपराधों को इस प्रकार धोना चाहता है ? राम और सीता के ऋणों से तो यह भूमि कभी मुक्त नहीं हो सकती। आम आदमी रामसिया की आदर्श जोड़ी को हृदय में धारण किए हुए है। नवविवाहिता युगल को रामसिया सी जोड़ी होने का आशीर्वाद दिया जाता है ! लोग जानते हैं कि सामाजिक रूढ़ियों की आँधी, तूफान और बवंडरों के बाद भी रामसीता का एक-दूसरे के प्रति प्रेम अक्षुण्ण रहा। नीड़ टूट गया, तिनके बिखर गए, जनता की इच्छा का सम्मान करते-करते रामसीता विषपायी हो गए। दोनों ने वियोग, अपमान और लांछन का गरलपान किया। वस्तुतः दोनों को ही अग्निपरीक्षा देनी पड़ी। किन्तु दोनों एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहे। जनता के प्रति भी समान रूप से अवध के महाराज और महारानी पूरी उत्कटता के साथ समर्पित रहे, यह शायद जनमानस बहुत विलम्ब से समझ पाया।
आज का आलोचक मन पूछता है कि राम ने स्वयं सिंहासन क्यों नहीं त्याग दिया बजाय सीता को त्यागने के ? वे स्वयं सिंहासन पर बैठे राज भोग क्यों करते रहे ? इस मत के पीछे कुछ अपरिपक्वता और कुछ श्रेष्ठ राजनीतिक परम्पराओं एव संवैधानिक अभिसमयों का अज्ञान भी है। राजा या शासक का पद और उससे जुड़े दायित्वों को न केवल प्राचीन भारत बल्कि आधुनिक इंग्लैंड व अन्य देशों में भी दैवीय और महान माना गया है। राजा के प्रजा के प्रति पवित्र दायित्व हैं जिनसे वह मुकर नहीं सकता। अयोग्य राजा को समाज के हित में हटाया जा सकता था किन्तु स्वेच्छा से राजा पद त्याग नहीं कर सकता था।
आधुनिक इंग्लैंड के राजनीतिक इतिहास के एक ही उदाहरण से स्थिति स्पष्ट हो सकती है। वहाँ की संवैधानिक व्यवस्था में राजा द्वारा सिंहासन-त्याग का कोई प्रावधान नहीं रहा। यही कारण है कि जब ऐडवर्ड अष्टम ने एक तलाकशुदा महिला श्रीमती सिम्पसन से विवाह करना चाहा तो इसके विरोध में इंग्लैंड की राजनीति में भारी उथल-पुथल मच गई। अंततः राजा ने राजपद त्याग का निर्णय लिया। पूर्व में न ऐसा कोई द्रष्टांत था, न परंपरा थी कि किसी वैध शासक ने अपनी व्यक्तिगत इच्छा और सुख को संवैधानिक प्रावधानों और जनभावना से ऊपर रखा हो। इस समस्या के निदान हेतु पार्लियामेंट (ब्रिटिश संसद) को एक विशेष कानून, ऐक्ट आफ अब्डिकेशन 1936 पारित करना पड़ा जिस पर स्वयं ऐडवर्ड अष्टम ने राजा और सर्वोच्च अधिकारी की क्षमता में हस्ताक्षर कर उसे कानून का रूप दिया और तब उसके हित में स्वयं ने राजपद त्याग किया। तत्पश्चात् उनके छोटे भाई और वर्तमान महारानी एलिजाबोथ द्वितीय के पिता जार्ज षष्ठ सम्राट बने।
कोई भी पद अधिकारियों के लिए नहीं, कर्त्तव्यों के लिए होता है। उसके साथ मनमाने ढंग से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से राजपद के साथ प्रजापालन, सुरक्षा व कानून और व्यवस्था के गम्भीर दायित्व जुड़े हुए हैं। यही बात इंग्लैंड की संसद (पार्लियामेंट) के सदस्य पर भी लागू होती है। वहाँ संसद के प्रथम सदन, हाउस ऑफ कॉमन्स का सदस्य जो निर्वाचक द्वारा पाँच वर्ष हेतु चुना जाकर भेजा जाता है, पाँच वर्ष की अवधि के मध्य में स्वेच्छा से सदस्यता नहीं छोड़ सकता।
यह एक ऊँचा आदर्श है कि वह निर्वाचकों की उपेक्षा कर के जन-भावना का अनादर नहीं कर सकता। निर्वाचकों ने उसे चुनकर बड़े विश्वास के साथ अपना प्रतिनिधित्व करने का दायित्व उसे सौंपा है अतः वह उनसे विश्वासघात कर अवसरवादिता और सिद्धान्तहीनता का आचरण नहीं कर सकता। किंतु यह आदर्श इतना कठोर है इसलिए यथार्थवादी और व्यवहारिक अंग्रेज जाति ने परोक्ष रूप से इसे शिथिल कर अपनी व्यवहार-कुशलता का परिचय दिया है। सिद्धान्ततः तो कोई सांसद कॉमन्स सभा की सदस्यता नहीं छोड़ सकता, किन्तु कभी यह आवश्यक हो जाए तो वह एक संवैधानिक खिड़की के माध्यम से ही वह सदस्यता त्याग सकता है। यह बड़ा रोचक तथ्य है।
कॉमन्स सभा की सदस्यता छोड़ने के आकांक्षी सांसद के सामने एक ही मार्ग है, है कि वह चिल्ट्रन्स हन्ड्रेड नामक क्षेत्र का अपने आपको स्टुवर्ड नियुक्त करवा ले और तब कॉमन्स सभा के स्पीकर को आवेदन दे कि चूँकि वह लाभ के पद पर नियुक्त है और कॉमन्स सभा का सदस्य नहीं रह सकता इसलिए उसे सदन की सदस्यता से मुक्त किया जाए। चिल्ट्रन्स हन्ड्रेड की स्टुवार्डशिप के पायदान पर पाँव रखकर ही वह फिर कहीं और जाने को स्वतंत्र है। कभी-कभी ऐसी मनोरंजक स्थिति भी आ जाती है जब चिल्ट्रन्स हन्ड्रेड की स्टुवार्डशिप पाने के लिए अभ्यार्थियों की लम्बी कतार लग जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पद की गुरुता और दायित्व बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जिनके साथ कोई खिलवाड़ नहीं कर सकता, उन्हें हल्के-फुल्के तौर पर नहीं ले सकता।
प्राचीन भारतीय राजदर्शन में राजा के पद को बहुत गम्भीर दायित्वों से परिपूर्ण माना गया है। राजपद पवित्र है। यह कर्त्तव्यों के लिए है। दायित्व निर्वाह हेतु है। अधिकारों के लिए नहीं। कोई भी नरेश मनमाने ढंग से अपने दायित्वों से पलायन नहीं कर सकता था। कर्त्तव्य ही धर्म है। इसलिए राजनीतिशास्त्र को राजधर्म भी कहा गया।
राजधर्म को पूरी परिपूर्णता से जीने वाले राम का परम आदर्श भरत के जनमानस में युगों से गहरा रच-बस चुका है। राम एक श्रेष्ठ पुत्र, समर्पित पति, एक उत्कृष्ट प्रेमी होने के साथ-साथ एक अद्वितीय शासक रहे हैं। वे ऐसे शासक रहे है जिन्होंने अपने व्यक्तिगत सुख, आकांक्षाएँ, प्रेम, अनुराग, पत्नी, सन्तान सुख, अर्थात् अपना सर्वस्व फूल की भाँति, निर्माल्य की भाँति जनता के चरणों में चढ़ा दिया और स्वयं आजीवन तपस्वी की भाँति केवल कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य निर्वाह करते रहे। श्रेष्ठ प्रशासक और वीरयोद्धा तो बहुत मिलेंगे किन्तु राम सा त्यागी और जनता के प्रति समर्पित शासक विश्व संस्कृति के इतिहास में शायद कहीं नहीं मिलेगा।
आज जहाँ लोकतंत्र में ही जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि खुले आम, डंके की चोट पर जनमत की उपेक्षा करते हैं और जनता का शोषण करते हैं। वहीं राजा राम ने राजतंत्र में निर्दोष सीता को, मात्र जन-भावना के सर्वोच्च सम्मान देने हेतु, त्याग कर एक अनूठा दृष्टांत प्रस्तुत किया है। आज तो शासक, मंत्र, सांसद, विधायक और अधिकारी अपने भ्रष्ट से भ्रष्ट भाई-भतीजे, पुत्र और संबंधियों को छल-बल और आतंक द्वारा किस तरह कानून और दण्ड से बचाकर भ्रष्टाचार को दिनदूना-रातचौगुना विस्तार दे रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। हमारा दुर्भाग्य है कि यह प्रवृत्ति भारतीय राजनीतिक संस्कृति (पोलिटिकल कल्चर) की एक प्रमुख पहचान और विशिष्ट लक्षण बन गई है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजेवाद की ज्वालाओं से दग्ध इस राजनीतिक परिवेश में राम जैसे त्यागी शासक का स्मरण करना शीतल चन्दन के अनुलेप की भाँति सुखदायक है। आज शासक, जनप्रतिनिधि राम पर फूल-पत्ते चढ़ाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। राम का अनुकरण कोई नहीं करना चाहता।
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